SUPREME COURT: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को सोशल मीडिया, ओटीटी कंटेंट और मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) से जुड़े दो अहम मामलों में कड़ा रुख दिखाते हुए केंद्र एवं चुनाव आयोग को गंभीर टिप्पणियों के साथ निर्देश जारी किए। अदालत ने स्पष्ट कहा कि ऑनलाइन प्रसारित अशोभनीय और आपत्तिजनक सामग्री के लिए “जिम्मेदारी तय होना अनिवार्य” है और केंद्र सरकार को चार सप्ताह में कठोर नियम तैयार करने होंगे।
अश्लील कंटेंट पर सख्ती
SUPREME COURT: पीठ ने कहा कि सोशल मीडिया पर अभद्र एवं एडल्ट कंटेंट तेजी से बढ़ रहा है और इसे हटाए जाने तक लाखों लोग इसे देख चुके होते हैं। न्यायालय ने टिप्पणी की कि यह मुद्दा सिर्फ अश्लीलता तक सीमित नहीं है, बल्कि “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरुपयोग और सोशल मीडिया के गलत इस्तेमाल” से जुड़ा है।
सुनवाई के दौरान ‘इंडियाज़ गॉट लेटेंट’ के कॉमेडियन समय रैना के एक शो का उदाहरण देते हुए अदालत ने कहा कि महिलाओं और माता-पिता पर अत्यंत आपत्तिजनक टिप्पणी वाले कंटेंट की भरमार है। कोर्ट ने संकेत दिया कि सरकार SC/ST एक्ट जैसे कठोर प्रावधानों की तर्ज पर जिम्मेदारी तय करने की व्यवस्था बनाए।
SUPREME COURT: उम्र-प्रमाणन अनिवार्य किया जाए
पीठ ने सुझाव दिया कि आधार आधारित उम्र-प्रमाणन (Age Verification) अनिवार्य किया जाए, ताकि नाबालिगों को आपत्तिजनक सामग्री के एक्सेस से रोका जा सके। साथ ही, कंटेंट शुरू होने से पहले “स्पष्ट चेतावनी” देने की भी बात कही गई। दिव्यांगता के एक अन्य मामले में कोर्ट ने समय रैना को निर्देश दिया कि वे अपने मंच का उपयोग दिव्यांग व्यक्तियों की सफलता की कहानियों को बढ़ावा देने और उनके लिए फंड जुटाने में करें।
SUPREME COURT: सुप्रीम कोर्ट का बड़ा सवाल ?
SIR प्रक्रिया की संवैधानिकता पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया: “क्या अवैध रूप से भारत आए लोग जिन्हें कल्याणकारी योजनाओं हेतु आधार कार्ड मिला है उन्हें वोट का अधिकार मिलना चाहिए?”
आधार रखने वाले “घुसपैठियों” को वोट का अधिकार?
SUPREME COURT: यह सवाल तब उठा जब वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि आधार धारक वैध मतदाताओं को भी सूची से हटाया जा रहा है। इस पर मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत की पीठ ने स्पष्ट किया कि आधार नागरिकता या मताधिकार का प्रमाण नहीं, बल्कि सिर्फ सरकारी योजनाओं का लाभ देने के लिए जारी किया जाता है।
कोर्ट ने मृत मतदाताओं की पहचान, बीएलओ की गलतियों और मतदाता सूची की पारदर्शिता पर भी चिंता जताई। अदालत ने सुझाव दिया कि हटाए गए मतदाताओं की सूची ऑनलाइन के साथ-साथ स्थानीय निकाय कार्यालयों में भी प्रदर्शित की जाए। चुनाव आयोग से विस्तृत जवाब मांगा गया है और पश्चिम बंगाल, केरल एवं तमिलनाडु की याचिकाओं पर अगली सुनवाई आगामी तारीखों में होगी।







