एक समय था जब “तेज़ चलो, आगे बढ़ो” को सफलता की पहचान माना जाता था। लेकिन अब तस्वीर बदल रही है। दुनिया भर में एक नई जीवनशैली तेजी से लोकप्रिय हो रही है। ‘स्लो लिविंग’, यानी धीरे चलो, बेहतर जियो।आज लोग भागदौड़ के बीच मानसिक थकान, अनिद्रा से परेशान हैं। मोबाइल स्क्रीन पर हर वक़्त हाथ में है। ऐसे में अब लोग अपने रूटीन में बदलाव लाने लगे हैं।
क्या है ‘स्लो लिविंग’?
स्लो लिविंग कोई फैशन नहीं, बल्कि एक सोच है
दिनभर की अनावश्यक भागदौड़ को कम करना,
खाने में प्राकृतिक चीज़ों को अपनाना,
सुबह-सुबह मोबाइल की बजाय सूरज की रोशनी देखना,
और हर छोटे पल को जीना। यह ट्रेंड कोविड काल के बाद सबसे ज़्यादा उभरा । जब लोगों ने महसूस किया कि स्वास्थ्य और मानसिक शांति ही असली लक्ज़री है।
लोगों के जीवन में बदलाव
शहरों में अब मिनिमलिस्ट होम डिज़ाइन, ऑर्गेनिक फूड और मॉर्निंग वॉक कल्चर का चलन बढ़ रहा है।युवाओं के बीच डिजिटल डिटॉक्स वीकेंड लोकप्रिय हो रहे हैं , लोग 2 दिन बिना मोबाइल, सिर्फ खुद के साथ बिताते हैं।30 से 40 वर्ष के बीच के लोगों में वर्क-लाइफ बैलेंस की मांग पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गई है।

विशेषज्ञ क्या कहते हैं
भोपाल के मनोवैज्ञानिक डॉ. आर.एन. सक्सेना बताते हैं ।
“अब लोग समझने लगे हैं कि सुकून किसी बड़ी कार या महंगी घड़ी में नहीं, बल्कि खुद के साथ बिताए वक़्त में है। स्लो लिविंग शरीर को नहीं, मन को ठीक करती है।”
मानवीय पहलू
यह चलन सिर्फ अमीरों तक सीमित नहीं रहा। अब छोटे शहरों और मध्यम वर्ग के लोग भी इसे अपना रहे हैं। कई परिवार हफ्ते में एक दिन “नो-स्क्रीन डे” मनाते हैं।बच्चे पौधे लगाते हैं और घर की छत पर सब्ज़ियाँ उगाई जाती हैं।यह सब उस इंसानी ज़रूरत को दर्शाता है जो अब नई पीढ़ी की सबसे बड़ी प्राथमिकता बन चुकी है।
निष्कर्ष
तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी अब थकाने लगी है। लोग समझ रहे हैं कि दौड़ में सबसे आगे निकल जाना ही सफलता नहीं।
कभी-कभी रुक जाना, गहरी साँस लेना और खुद से बात करना भी ज़रूरी है।
यही है नई लाइफस्टाइल की परिभाषा।
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